साई बाबा के अनन्य भक्त महालसापति
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साई बाबा के अनगिनत भक्तो में एक भक्त थे महालसापति जी। बाबा एक दिन द्वारकामाई में और हर दूसरे दिन चावड़ी में विश्राम किया करते थे। जब भी वे द्वारकामाई में विश्राम करते तब महालसापति जी उनके पास बैठते थे और सारी रात उनेक पास रहते थे। महालसापति जी की आर्थिक स्तिथि कुछ ठीक नहीं थी पर फिर भी वह लोभी नहीं थे। साई बाबा भी हमेशा उन्हें यही कहा करते थे कि "तुम्हारे पास जो है उसी में तृप्त और खुश रहो"।
1917 में श्री हंसराज नाम का एक व्यापारी शिर्डी में आया और महालसापति जी की दैन्य व्यवस्था देखते हुए उन्हें 10 रूपये देने चाहे पर उन्होंने लेने से इंकार कर दिया। फिर हंसराज जी ने बापूसाहिब जोग जी के द्वारा पैसे भेजे मगर तब भी उन्होंने अस्वीकार कर दिए।
फिर वह धनराशि श्री सीताराम दीक्षित जी के हाथों में गई। दीक्षित जी ने बाबा की उपस्तिथि में, जब महालसापति जी बाबा की सेवा कर रहे थे, उन्हें वो पैसे देना चाहे मगर तब भी महालसापति जी ने नहीं लिए। तब दीक्षित जी ने बाबा से कहा की वह ये धनराशि खुद ही अपने हाथो से महालसापति जी को दें, इस पर बाबा ने कहा कि "फ़िलहाल इस धन को तुम अपने पास ही रखो"।
जब महालसापति जी ने बाबा की सेवा पूरी कर ली तब बाबा ने दीक्षित जी से पूछा कि "कितनी धनराशि है?" उन्होंने उत्तर दिया की "दस"। फिर बाबा ने कहा कि इसे तुम अपने पास ही रहने दो और नानासाहिब निमोणकर को ये आज्ञा दी कि वो धनराशि को सभी लोगो में बाट दें, जिसमे से एक रुपया भी महालसापति जी को नहीं मिला जबकि वह धन उन्ही के लिए आया था।
सूत्र : गुजरती मैगज़ीन 'द्वारकामाई' से अनुद्धादित
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Translated and Narrated By Rinki Transliterated By Supriya
© Sai Teri Leela - Member of SaiYugNetwork.com
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